आकांशा शर्मा :- कर्म,
ज्ञान और भक्ति
धार्मिक विकास मैं सहायक
है। एक कर्मठ
मनुष्य
अपनी मंज़िल तक
पहुँचता है,
किन्तु थोड़ी दूरी
रह जाती है,एक ज्ञानी
व्यक्ति भी मंज़िल
तक पहुँचता है
परंतु श्रेष्ट दुरी
रह ही जाती
है । लेकिन
एक भक्त सीधे
लक्ष्य तक पहुंच
जाता है। ज्ञानी
एवं कर्मठ ने एक
लंबा जीवन ज्ञान
की प्राप्ति मैं
गवाँ दिया किन्तु
फिर भी अपना
लक्ष्य को पूरा
नहीं कर पाएं।
उन्हें(ज्ञानी एवं कर्मठ
व्यक्ति) को लगता
है की वो
एक दम लक्ष्य
के नज़दीक है
परंतु वे बहुत
दूर होते है।
लेकिन जो लोग
ईश्वर मैं लीन
रहते है वे
कभी नही पछताते
क्योंकि वे न
सम्मानित महसूस करते हैं
न अपमानित।उनके मन
मैं ईश्वर के अलावा
और कुछ नही
होता।इसीलिये वे दुख
और सुख से
प्रभावित नहीं होते
है।
एक बुद्धिमान इंसान के
मन मैं अहंकार
सदा रहता है,
वे यें सोचतें है
की वे साधारण
लोग नहीं हैं।हम
देखते हैं कि
एक घमण्डी बुद्धिजीवी
हमेशा दुखी ही
रहता है इसी के कारण उनका
मार्ग अच्छा होने पर
भी सुरक्षित नहीं
हो सकता है। अहंकारी जब
सोचते है कि
उन्होने किसी काम
को पूरा किया
है तो गर्व
महसूस करते हैं।
ऊपरी तौर पर
वे कह सकते
हैं कि उन्होने
कुछ नहीं किया
है, लेकिन गुप्त
रूप से वे
अहंकार पालते हैं।
किन्तु भक्तों
के पास खोने के
लिये कुछ नहीं
है।चूंकि वे भगवान
को महसूस करते
हैं और उन्हें स्वयं
अपना समझते हैं,
उनका कुछ फायदा
या नुक़सान नहीं
होता है। मानसिक
संतुलन वैसा ही
बना रहता है। ईश्वर
की आरंधना से मार्ग
दर्शन होता है,भक्त ईश्वर
की सेवा केवल
उनको आनंद देने
के लिये, उन्हें
प्रसन्न करने के
लिये करते हैं
और कभी भी
स्वयं के लिये
आनंद या प्रसन्नता
की आकांक्षा नहीं
करते।
यही सच्चा
मार्ग है।
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